बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 इतिहास बीए सेमेस्टर-3 इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 इतिहास
प्रश्न- बंगाल की स्थायी भूमि कर व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -
बंगाल की स्थायी भूमि कर व्यवस्था
(Permanent Revenue System For Bengal Land)
जिस समय कॉर्नवालिस की नियुक्ति की गई थी उस समय उसे आदेश दिया गया था कि वह भारत में भूमिकर व्यवस्था का ऐसा हल निकाले जिससे कि कंपनी तथा कृषक दोनों के हितों की रक्षा की जा सके। सबसे पहले उसने बंगाल में प्रचलित भूमि कर, किराया तथा पट्टों का पूर्णरूप से अध्ययन किया। काफी लम्बे समय तक वाद-विवाद चलते रहे जिसमें राजस्व बोर्ड के प्रधान सर जॉन शोर अभिलेख पाल (Record Keeper) जेम्स ग्रांट तथा गवर्नर जनरल ने प्रमुख रूप से भाग लिया। प्रमुख रूप से तीन प्रश्न समस्या उत्पन्न कर रहे थे -
1. कृषक या जमींदारों में से किसके साथ व्यवस्था की जाये।
2. भूमि की उपज में शासन का क्या भाग होना चाहिए।
3. व्यवस्था स्थाई की जाये या फिर कुछ वर्षों के लिए।
कुछ लोगों का कहना था कि जमींदार को कर संग्रहकर्ता अथवा भूमि का स्वामी माना जाये लेकिन इस बात पर जॉन शोर तथा जेम्स ग्रांट के विचार विपरीत थे। शोर कॉर्नवालिस को भूमि का स्वामी मानता था और उनका कहना है कि वह सारी भूमि को अपने बच्चों को बपौती के रूप में दे सकता है। उसे गिरवी रख सकता है अथवा बेच सकता है। जॉन शोर का कहना है कि इस प्रकार की स्थिति मुगल काल से चली आ रही थी। जबकि ग्रांट का कहना है कि समस्त भूमि सरकार की है तथा जमींदार केवल उसकी ओर से भूमि कर के संग्रहकर्ता है। सरकार जब चाहे उसे हटा सकती है। कॉर्नवालिस स्वयं इंग्लैंड का एक जमींदार था जो शोर के विचारों से सहमत था। कंपनी के अधिकारियों के पास इतने प्रशासनिक अनुभव भी नहीं थे कि भूमि कर व्यवस्था को सीधे कृषकों के साथ स्थापित कर सकें। अतः कॉर्नवालिस ने जमींदारों से ही व्यवस्था करने की सोची। प्रश्न यह था कि भूमि कर व्यवस्था कितना हो और उसकी व्यवस्था का आधार क्या हो? ग्रांट का विचार था कि मुगलकाल की अधिकतम सीमा अर्थात् जितना कर 1765 में लिया जाता था वह ही निश्चित किया जाये। दूसरी ओर शोर का कहना था कि मुगलकाल में जो निर्धारित कर संग्रह किया जाता था उसकी अपेक्षा वास्तविक कर प्रायः बहुत कम होता था। सोच-विचार करने के बाद यह पता चला कि 1790-91 में जो कर संग्रह किया गया था अर्थात् 2,68,00,000 रुपये को ही आधार स्वीकार किया गया।
समय के विषय में शोर तथा कॉर्नवालिस के विचारों में भिन्नता थी। शोर का कहना था कि न भू- संपत्तियों (Estate) का सर्वेक्षण किया गया और न ही उनकी सीमाओं का निर्धारण किया गया। अतः इस प्रकार की व्यवस्था 10 वर्ष तक के लिए होनी चाहिए। कॉर्नवालिस का विचार इससे भिन्न था उसका कहना था कि यह व्यवस्था स्थायी तथा शाश्वत होनी चाहिए। समय के विषय में उसका कहना था कि 10 वर्ष का समय इतना अधिक नहीं है कि कोई भी जमींदार भूमि में स्थाई सुधार करने का प्रयास कर पायेगा। इस बात का निर्णय कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स ने कॉर्नवालिस के प्रस्ताव को पारित कर दिया।
व्यवस्था - जब कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी तो उसी समय जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया तथा 1790 में उनसे 10 वर्ष की व्यवस्था कर दी गई। यही व्यवस्था 1793 में स्थाई कर दी गई और सभी जमींदारों तथा उत्तराधिकारियों को यह ऐलान कर दिया गया कि शाश्वत रूप में इसी दर से भूमि कर देना होगा। भूमि के लगान का 8/9 भाग कंपनी को देना था तथा 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना होता था।
व्यवस्था पर विचार - समकालीन विचारों के अनुसार इस स्थाई व्यवस्था से बहुत से लाभ थे- वित्तीय रूप से इसका प्रमुख लाभ यह था कि वर्षा कम हो अथवा अधिक राज्य की आय निश्चित
दूसरा लाभ यह था कि सरकार को समय-समय पर नई व्यवस्था तथा कर निर्धारण नहीं करना होगा। आर्थिक दृष्टि से यह समझा गया कि इससे कृषि व्यवसाय को बढ़ावा मिलेगा और अधिक मात्रा में भूमि जोती जायेगी तथा जमींदार लोग कृषि के नये-नये तरीके, उर्वरक का प्रयोग तथा फसलों का बदलना इत्यादि अपनायेंगे। इस प्रकार स्थाई व्यवस्था भूमि को अधिक से अधिक प्रयोग करने का मौका मिलेगा, जिससे कृषक संतुष्ट तथा धनी बन जायेंगे कॉर्नवालिस को राजनैतिक रूप से इस बात का विश्वास था कि स्थायी व्यवस्था एक ऐसे राजभक्त जमींदारों की श्रेणी उत्पन्न कर देगी जो कंपनी की हर प्रकार से रक्षा करने का प्रयास करेगी क्योंकि कंपनी ने ही उनके अधिकारों को सुरक्षित किया है। जिस प्रकार 1964 में बैंक ऑफ इंग्लैंड के गठन के पश्चात् एक प्रभावशाली वर्ग ने विलियम तृतीय को समर्थन दिया उसी प्रकार कंपनी को भी इन प्रभावकारी व्यक्तियों का समर्थन मिला और 1857 के विद्रोह में बंगाल के जमींदार सरकार के साथ रहे।
सीटन कार (Seton Car) के अनुसार "इस व्यवस्था के राजनैतिक लाभों ने इसकी आर्थिक हानियों का सन्तुलन कर दिया।'
सामाजिक रूप में जमींदार कृषकों पर यह आशा की गई कि वे सभी प्राकृतिक नेताओं के रूप में कार्य करेंगे तथा ये जमींदार विधा के प्रसार तथा अन्य समाज सेवा कार्यों में मार्गदर्शन करेंगे। अन्त में अब हम यह भी कह सकते हैं कि जो अवगुण अल्पकालीन व्यवस्था से संबंधित होते हैं उन सभी अवगुणों को दूर करने के लिए कंपनी के योग्य अधिकारियों की संख्या न्याय कार्य के लिए रिक्त हो गई हैं। जैसे अन्तिम दिनों में भूमि में फसलें कम उगाने की प्रवृत्ति या फिर कृषकों को तंग करना था ताकि कर निर्धारण कम हो इत्यादि इस व्यवस्था में नहीं थे।
हानियाँ - व्यवस्था के प्रारम्भिक वर्षों में जो कुछ भी लाभ हुए हों सो तो वही संभव है परन्तु बहुत जल्द ही यह व्यवस्था उत्पीड़न तथा शोषण का साधन बन गई। इससे उच्च स्तर पर सामन्तवाद तथा निम्न स्तर पर दास वृत्ति उत्पन्न हुई, बहुत से लाभ तो दिखावटी मात्र थे लेकिन वह वास्तविक नहीं थे। वित्तीय दृष्टिकोण से शासन को दीर्घकाल में बहुत अधिक घाटे का सामना करना पड़ा। स्थायी भूमि को निश्चित करते समय भूमि तथा उत्पादन के भावी मूल्यों की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया जिससे कृषि योग्य भूमि तथा उत्पादन के मूल्यों में कई गुना वृद्धि हो गई। इसके बावजूद भी सरकार को कोई अतिरिक्त धन नहीं मिला। उदाहरण के लिए जमींदारों द्वारा 1901 में जो किराया कृषकों से लिया जाता था सरकार को उसका केवल 28 प्रतिशत मिलता था बाकी बचा हुआ धन उन्हीं जमींदारों के पास रह जाता था। 1973 में निर्धारित भूमिकर 1954 तक उसी स्तर पर चलता रहा।
इस व्यवस्था से बंगाल की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। अधिकांश जमींदारों ने भूमि सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वे केवल अधिकतम किराया प्राप्त करने में लगे रहे। कृषकों को हर समय बेदखली का भय बना रहता था अतः उन्हें भी भूमि सुधार के विषय में कोई प्रेरणा नहीं थी। जमींदार धन एकत्रित करने एवं ऐश्वर्य जीवन व्यतीत करने के लिए अपनी जागीरों को छोड़कर बड़े-बड़े नगरों में रहना पसन्द किया। इस प्रकार जमींदार छोटे-छोटे गांवों के धन को चूस चूस नगरों में बरबाद करते थे। इसके अतिरिक्त कृषकों तथा सरकार के बीच बहुत से मध्यस्थ (Intermediaries) उत्पन्न हो गये जो अपना- अपना भाग लेने में लगे हुए थे। कई स्थानों पर 50-50 मध्यस्थ स्थापित हो गये। यह समस्त भार गरीब किसानों पर डाल दिया गया और वे किसान प्रायः और गरीब होते गये जिससे उनकी किंकरी अवस्था का सामना करना पड़ा। इस विषय में कारवर महोदय ने लिखा है कि- 'युद्ध अकाल महामारी से नीचे अनुपस्थित जमींदारी है जो ग्रामीण समुदाय के लिए सबसे अधिक बुरी है।
यह बात सत्य है कि राजनैतिक रूप में अंग्रेजों को एक राजभक्त श्रेणी मिल गई परन्तु इससे करोड़ों व्यक्ति अंग्रेजों से नाराज भी हो गये तथा समाज जमींदार तथा असामियों, एक-दूसरे के विरोधी हो गये और अलग-अलग गुटों में विभक्त हो गये।
सामाजिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्थायी व्यवस्था काफी निन्दनीय है। कंपनी ने जमींदारों का भूमि पर पूर्ण रूप से आधिपत्य स्थापित कर दिया और भूमिपति तथा कृषकों दोनों के हितों की अवहेलना की गई जिससे गरीब किसानों को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ता था। भूमिपति जो कल तक अपनी भूमि का मालिक था अब वह एक किरायेदार हो गया तथा किरायेदार अब जमींदारों को अपना स्वामी मानते थे और उनकी दया पर निर्भर रहते थे। जमींदारों का अधिकार हो जाने पर किरायेदारों को अधिक से अधिक किराया देना पड़ता था। ऐसा अन्याय भारत के इतिहास में सबसे पहले कभी नहीं हुआ होगा।
आरम्भिक वर्षों में जमींदारों को बहुत सी बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जो भी भूमि में उत्पादन होता था उसमें सरकार का भाग अत्यधिक था। इसके अतिरिक्त कर एकत्रित करने का ढंग बहुत कड़ा था। जमींदारों को कोष में धन जमा करने का जो एक निश्चित दिन एवं समय दिया जाता और सूर्यास्त होने से पहले धन को कोष में जमा हो जाना चाहिए। यदि इस प्रकार के नियम का पालन नहीं किया गया तो उनकी जमींन छीन ली जाती थी। सूर्यास्त का नियम लागू होने से कई जमींदारों को अल्पकालिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 1797-98 में लगभग 17 प्रतिशत जमींदारों की भूमि नीलाम हो गई, ये नियम इतने कठोर थे कि जो भी भूमि की नीलामी की जाती थी उस भूमि के लिए कोई भी व्यक्ति नीलामी की बोली करने नहीं आता था। नये-नये जमींदार होने के कारण कृषकों की अवस्था और भी सोचनीय हो गई। अन्त में हम यह कह सकते हैं कि यदि कंपनी को यह व्यवस्था 40 अथवा 50 वर्ष के लिए कर दी जाती तो वे सभी लाभ प्राप्त हो जाते जो कंपनी ने सोचे थे और उसे मिल भी जाते। आने वाली पीढ़ियों को इस व्यवस्था के बन्धन में कसकर रखना कोई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है। संभवतः यह भी भय था कि नौकरशाही का शोषण जमींदारों के शोषण से अधिक बुरा हो सकता था। 20वीं शताब्दी में तो सामाजिक अन्याय तथा आर्थिक अयोग्यता से पूर्ण होने पर यह स्थिति बहुत अखरती थी। दूसरी तरफ नौकरशाही राजनैतिक तथा सामाजिक न्याय के भी विरुद्ध थी। इसलिए स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने अन्यायपूर्ण परिस्थितियों का सामना करने के लिए 1955 में West Bengal Acquisition of Estates के अंतर्गत राजकोष से जमींदारों को बहुत धनराशि देकर यह स्थायी समाप्त कर दी।
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